रविवार, 4 दिसंबर 2011

एफ डी आई पर बवाल -कितना उचित या अनुचित


देश मे एफडी आई पर भारी बवाल मचा हुआ है केन्द्र सरकार खुदरा व्यापार के लिए विदेशी कम्पनियो को भारत मे अपनी दुकाने खोलने की अनुमति देना चाहती है जबकि विपक्ष का व व्यापारियो का कहना है कि इससे देशी खुदरा व्यापारियो को नुकसान होगा । जनता का भी इस आधार पर यह कहना है कि यदि ऐसा होता है तो विदेशी कम्पनियो को खुदरा व्यापार करने की अनुमति नही दी जानी चाहिए जिनसे भारतीय ख्ुदरा व्यापारियों को कोई नुकसान हो ।

ये एक साधारण सोच है कि यदि देश के व्यापारियो को नुकसान हो तो इस कीमत पर विदेशी कम्पनियो को खुदरा व्यापार की अनुमति नही दी जानी चाहिए । लेकिन जब तक इस पर गंभीरता से विचार नही किया जाता तब तक इस बारे मे अपनी राय देना उचित नही है । फौरी तौर पर किसी विषय पर बिना गंभीरता से विचार किये गुमराह होना परिपक्वता नहीं कहा जा सकता है । आईये जानते है इसकी गहराई जिसके आधार पर हम अपनी विचारधारा का निर्माण कर निर्णय करे कि क्या वास्तव मे विदेशी कम्पनियो को खुदरा व्यापार की अनुमति दी जानी चाहिए अथवा नही ।

एफडीआई को समझने के लिए हम छोटा सा उदाहरण लेते है कि जैसे किसी मोहल्ले मे कोई छोटी छोटी दो  तीन दुकाने है मोहल्ले के लोग उन्ही दुकानो से अपनी आवश्यकता का सामान क्रय करते है । जिससे उन्हे बार बार बाजार नहीं जाना पडता ।इन दुकानो से दुकानदार अपने परिवार का पालन पोषण करते है । सरकार की नई नीति होती है कि ऐसी दुकानो के लिए एक बाजार विकसित किया जावे ताकि लोगो को अपनी आवश्यकता का सामान वहां से भी लेने का अवसर मिल सके । लेकिन गली मोहल्ले के दुकानदार संगठित होकर सरकार के इस निर्णय का विरोध करते है कि इससे हमारी दुकानदारी पर प्रभाव पडेगा और हम बेेरोजगार हो जाएगे । क्या लगता है आपको क्या ये सही है  अपने विवेक से अपने आपको इस प्रश्न का उत्तर दीजिये ।

क्या गली मोहल्ले की दुकाने वास्तव मे बंद हो जाएगी  बाजार विकसित हो जाने से क्या गली मोहल्ले मे चलने वाली दुकाने बंद हुई है क्या आपके आसपास कोई दुकान नहीं है जबकि आपके गांव या शहर में बाजार भी है । बस इसी मे विदेशी कम्पनियों के भारत में मॉल खोलने की चाबी छिपी है भारतीय उपभोक्ता इतना परिपक्व है कि वह अपनी आवश्यकता की वस्तुए वही से खरीदता है जहॉ से उसे सस्ती व अच्छी वस्तु मिलती है । जब 90 के दशक में माइक्रोसाफट आई टी के क्षेत्र मे आई तो उसका जबर्दस्त विरोध हुआ कहा ये गया कि इससे कई लोग बेरोजगार हो जाएगे लेकिन आज स्थिति यह है कि आई टी के क्षेत्र में देश के लाखो युवाओ को अच्छे रोजगार मिले हुए है इसी प्रकार जब पिज्जा हट मैकडॉनल केएफसी जैसी कम्पनियो को इजाजत दी गई तब भी जबर्दस्त विरोध हुआ और रेलिया निकाली गई तर्क ये दिया गया कि इन कम्पनियो के आने से भारत के ढाबे होटलो वाले बेरोजगार हो जाएगे । क्या ऐसा हुआ  एक भी ढाबा न तो बन्द हुआ और न ही इसके कोई दुष्परिणाम सामने आए आज पिज्जा हट मैकडॉनल  व केएफससी भी अपना व्यापार कर रही है और ढाबे भी वैसे ही चल रहे है । ढाबे के शौकीन लोग ढाबो मे आज भी जा रहे है तो पिज्जा हट मैकडॅानल केएफससी के शौकिन अपने शौक वहॉ जाकर पूरा कर रहे है ढाबे वाले भी कमा रहे है और पिज्जा हट मैकडॉनल केएफसी भी अपना बिजनेस कर रहे है ।

 हमारे देश में 125 करोड लोग रहते है क्या सभी सुपर मार्केट से ही अपनी आवश्यकता की वस्तुए क्रय करते है  हमारे देश में रिलायन्स फ्रेश विशाल मेगा मार्ट बिग बाजार जैसे कई विशाल स्टोर है  जिन शहरो में ऐसे विशाल स्टोर है वहॉ क्या खुदरा दुकाने बंद हो गई है  नही हुई ना  वहॉ ये मॉल भी अपना व्यापार कर रहे है और खुदरा व्यापारी भी उसी तरह अपना व्यापार कर रहे है जिस तरह वे इन विशाल स्टोर की स्थापना से पहले करते रहे है ।

भारत मे विदेशी खुदरा व्यापार के लिए जो कम्पनिया आने वाली है उनमे वाल मार्ट कारफूर टेस्को केयर फोर जैसी विश्व की खुदरा व्यापार मे अग्रणी कम्पनी भी है इन विदेशी कम्पनियो का विरोध करने वालो का तर्क है कि इन जैसी कम्पनिया पहले तो बाजार पर कब्जा जमाने के लिए लोगो को उचित मूल्य पर सामान उपलब्ध कराऐगी और थोक व्यापारियो से अच्छे दामो से वस्तुए क्रय करेगी जिससे खुदरा व्यापारियो को माल नही मिलेगा और यदि मिलेगा भी तो बढी हुई कीमत पर जिससे उन्हे नुकसान होगा और  जब बाजार पर इन कम्पनियों का कब्जा हो जाएगा तो फिर ये मनमानी कीमत वसूल करेगी । भारतीय लोगो को इस बात से डर लगंता है कि अगर वास्तव मे ऐसा हो गया तो उनका तो जीना दूभर हो जाएगा । उनका यह डर वाजिब भी है । लेकिन थोडा गंभीरता से विचार करना होगा कि हमारे देश के कितने प्रतिशत लोग इस विशाल स्टोर से अपनी आवश्यकता का सामान खरीदते है । आपको जानकारी होगी कि हमारे पंजाब प्रान्त के अमृतसर चन्डीगढ व जालन्धर शहरो मे वाल मार्ट के स्टोर है और भन्टिडा मे शीघ्र ही खुलने वाला है ।

क्या इन शहरो मे खुदरा बाजार नही चल रहा है जिस प्रकार से हौव्वा खडा किया जा रहा है उस हिसाब से तो पंजाब के इन तीन शहरो जहॉ कि विदेशी कम्पनी वाल मार्ट के शो रूम है वहॉ तो खुदरा व्यापारी अपनी दुकाने बंद कर चुके होगे और वे बेरोजगार हो गए होगे । लेकिन सच्चाई ये है कि वहॉ के खुदरा व्यापारी आज भी इतने ही खुशहाल है जितने कि इन शोरूम की स्थापना से पहले थे ।

यही नही उडीसा मे तो विदेशी कम्पनी के आने के बाद स्थिति यह है कि मछली व्यवसाय से जुडे लोग अच्छे दाम मिलने के कारण मछली खाने से भी परहेज करते है । क्योंकि उन्हे उसके अच्छे दाम मिल रहे है और उनकी आर्थिक स्थिति मे सुधार हो रहा है। इसका मतलब ये भी नही है कि वहॉ मछली मिलना ही बन्द हो गया है आज भी लोग स्थानीय लोगो से उसी दामो पर अपने भोजन के रूप में मछली ले रहे है अर्थात् भारतीय व्यापारी और उपभोक्ता इतना जागरूक है कि विदेशी कम्पनी को तो बढे हुए दामो पर मछली बेच रहा है और अपनी आवश्यकता की पूर्ति स्थानीय लोगो से जहॉ से उसे उचित मूल्य पर मछली मिल जाती है वहॉ से ले रहा है । विरोध करने वालो के हिसाब से तो पंजाब के अमृतसर चन्डीगढ व जालन्धर शहरो व उडीसा मे खुदरा व्यापार की दुकाने बन्द हो जानी चाहिए थी जबकि वहा विदेशी दुकानो के साथ साथ देशी खुदरा व्यवसाय भी चल रहा है सीधा सा हिसाब है कि चाहे कितनी भी बडी कम्पनी क्यों ना आ जाए वह भारत के 125 करोड लोगो की जरूरते पूरी नही कर सकती वे अपनी होने वाली खपत के अनुसार ही स्थानीय बाजार से अपना माल क्रय करेगी   इससे यह सि़द्ध होता है कि विशाल शो रूम की तडक फडक उन खास लोगो को ही प्रभावित करती है जिन्हे ऐसे मालो से अपना सामान खरीदने की आदत है और ऐसे लोगो की भारत मे तादाद बमुश्किल 5 या 10 प्रतिशत है  अर्थात् 90 प्रतिशत आबादी इन विशाल शो रूम की तरफ अपने कदम तभी बढाती है जब उन्हे स्थानीय बाजार से सस्ती दर पर व उचित वस्तु मिलने की जानकारी मिलती है ।

हमारे देश के 125 करोड देशवासी चाहे कितने ही वाल मार्ट कारफूर टेस्को केयर फोर जैसी कम्पनिया आ जाए उन्हे उसी समय तक ही सर माथे पर चढाएगी जब तक कि वह उनकी जेब पर भारी नही होगी । यदि उन्हे लगेगा कि इन शो रूमो पर उनकी आवश्यकता के सामान की कीमत ज्यादा वसूली जा रही है तो वह इन विशाल शो रूम की तरफ मुह भी नहीं करेगी । हॉ 10- 20 प्रतिशत लोग ऐसे भी होगे जिन्हे यह मार्ट भा भी जाएगे । आज भी भारतीय उपभोक्ता इतना परिपक्व है कि यदि उसे दो तीन वस्तुए खरीदनी हो तो वह पहले मार्केट का सर्वे करता है यह जानकारी लेता हे कि कौन सी वस्तु कहॉ सस्ती मिलती है और फिर वह अपनी खरीदने की प्लानिग करता है । आज भी गावो व शहरो मे लोग एक वस्तु कही से तो दूसरी वस्तु कहीं दूसरी जगह से खरीदते है कारण कि उन्हे लगता है कि जो वस्तु सही व सस्ती है वह तो वही से खरीदी जाए जहॉ कि उसके उचित दाम है ।

भारतीय बाजार पर विदेशी कम्पनियॉ कब्जा कर लेगी यह भय दिखाकर विदेशी कम्पनियो मे भारतीय युवाओ के लिए रोजगार के अवसर समाप्त करना उचित नही कहा जा सकता क्योकि जब ये विदेशी कम्पनिया आएगी तो उन्हे कर्मचारियो की जरूरत होगी और वे कर्मचारी भारतीय युवा होगे । रही बात 125 करोड के आबादी वाले देश की जरूरतो को पूरा करने की बात तो वो तो 40-50 कम्पनियां नही कर सकती है क्योकि जब देश के रिलायंस फ्रेश विशाल मेगा मार्ट व बिग बाजार जेसी मल्टी परपज कम्पनियां भी भारतीय बाजार का 5 प्रतिशत व्यापार भी अपने कब्जे मे नहीं कर सकी तो ये विशाल शो रूम की चमक दमक वाली कम्पनिया क्या भारतीय उपभोक्ता को अपने मायाजाल मे फसा पाएगी ।         क्योकि भारतीय उपभोक्ता अव्वल तो इन चमक दमक वाली दुकानो के आगे से ही नही गुजरना चाहता और मान भी लिया जाए तो अधिक से अधिक 25-30 प्रतिशत लोग ही इन दुकानो के ग्राहक बन सकेगे और बाकी के 70-75 प्रतिशत जनता अपनी जरूरते स्थानीय खुदरा व्यापारियो से ही पूर्ति करेगी जिनसे इन विशाल शो रूमो को तो व्यवसाय मिल जाएगा और ये मुनाफा कमाते हुए कार्य करते रहेगे लेकिन स्थानीय खुदरा व्यापारी भी अपना धंधा आसानी से चला सकेगे । जैसा कि पंजाब के तीन शहरो मे तथा उडीसा के मछली व्यवसाय से  ये विदेशी कम्पनियां अपना काम कर रही है और स्थानीय खुदरा व्यापारी भी अपनी दुकाने चला रहे है । अब उन आम भारतीय लोगो को तय करना है जिनका राजनीति से कोई लेना देना नही है तथा जो देश के विकास के बारे मे सोचते है  कि क्या एफडीआई पर किया जा रहा बवाल वास्तव मे उचित है या ये केवल राजनीतिक स्टंट है । कही इससे हमारे युवाओ के इन विदेशी कम्पनियो मे रोजगार के अवसर तो समाप्त नही हो जाएगे साथ ही देश को विदेशी मुद्रा का भी नुकसान तो नही होगा ।

शनिवार, 5 नवंबर 2011

पेट्ोल के दामो मे एक बार फिर बढोतरी -जनता मे भारी आक्रोश

 
पेट्ोल के दामों में एक बार फिर बढोतरी ने जनता एवं राजनीतिक दलो मे  आग लगा दी है जनता सडको पर है तो राजनीतिक दल इस बहाने यूपीए सरकार को धाराशायी करने मे जुट गए है । यूपीए के घटक तृणमूल कांग्रेस ने तो सरकार से अपना समर्थन वापस लेने तक की बात कर दी है । अभी पिछले महिने ही पेट्ोल के दामो में 3 रूपये 14 पैसे प्रति लीटर की बढोतरी की गई थी जिससे देश मे पेट्ोल के दाम 70 रू से 73 रू प्रति लीटर तक पहुंच गए थे । अब फिर 1 रू 82 पैसे प्रति लीटर की बढोतरी कर दी गर्इ्र है । जिससे पेट्ोल 72 से 74 रूपये प्रति लीटर तर पहुंच गया है ।

पेट्ोल के दामो मे बढोतरी का जो कारण तथा तर्क  बताया गया है वह यह है कि अन्तर्राष्टी्य बाजार में रूपये की कीमत घट गई है  सितम्बर 2011 में  एक डालर  के बदले भारतीय 47 रू 66 पैसे देने पडते थे जबकि अब एक डालर के बदले 49 रू 20 पैसे चुकाने पड रहे है अर्थात् एक डालर पर एक रू 56 पेसे ज्यादा भुगतान करना पड रहा है इस कारण तेल कम्पनियों को घाटा हो रहा था अतः पेट्ोल के दामों में सिर्फ एक रू 82 पैसे की ही बढोतरी की गई है । यहां यह उल्लेखनीय है कि तेल के दामो का भुगतान डालर मे किया जाता है । अन्तर्राष्ट्ीय बाजार में तेल के भाव अभी भी 110 डालर प्रति बैरल ही है उसके दामों में बढोतरी नही हुई है लेकिन भारतीय रूपये का अवमूल्यन होने के कारण तेल कम्पनियों को ज्यादा भुगतान करना पड रहा है इसलिए तेल की कीमते बढाई गई है ऐसा तर्क दिया गया है ।

अगर इस तर्क के आधार पर तेल की कीमते बढाई गई है तो फिर मार्च 2009 में डालर अपने अधिकतम स्तर पर था जब एक डालर के बदले 51 रू 21 पैसे देने पडे थे क्या आपको मालूम है उस समय पेट्ोल के देश मे क्या भाव थे उस समय पेट्ोल के दाम 40 रू 62 पैसे प्रति लीटर थे । इस तर्क पर यदि पेट्ोल के दामो मे बढोतरी हो तो फिर 2009 मे पेट्ोल  40 रू 62 पैसे प्रति लीटर क्यो था । इस तरह के लचर कारण देकर तेल कम्पनियां शायद सरकार को गुमराह कर जनता को लूट रही है ।

सरकार को चाहिए कि वह तेल कम्पनियों पर पूरी निगरानी रखे । कम्पनिया  अपने लाभ को कम नही करना चाहती इसलिए जब भी अन्तर्राष्ट्ीय बाजार में कच्चे तेल के भावों में बढोतरी होती है वह दाम बढा देती है और जब भी डालर के मुकाबले रूपया कमजोर होता है तो इस तर्क के आधार पर दाम बढा देती है अर्थात् वे अपने निर्धारित लाभ को किसी भी स्थिति में कम नही होने देना चाहती । ये तो वह बात हो गई कि चाहे जनता जाए भाड मे इन कम्पनियों को अपने लाभ से मतलब है वह कम नहीं होना चाहिए ऐसे में लोकतात्रिक सरकार का यह दायित्व हो जाता है कि वह यह देखे कि जनता जब चारो से मंहगाई की मार से दबी जा रही है तो इन कम्पनियों को अपने निश्चित लाभ को थोडा कम करने की सलाह देकर दाम बढाने की अनुमति नहीं देनी चाहिए ताकि मंहगाई से त्रस्त जनता को सडको पर उतरने पर मजबूर न होना पडे ।

जून 2009 से पहले तक पेट्ोल के दाम निर्धारित करने का अधिकार सरकार को था लेकिन जून 2009 के बाद तेल कम्पनियों को अपने स्तर पर दाम निर्धारित करने की छूट दे दी गई तथा हर 15 दिनों में इसकी समीक्षा करने का निर्णय लिया गया । लेकिन सरकारी तंत्र मे कौन समीक्षा करे  इसमे व्यवस्था तो यह  है कि अन्तर्राष्ट्ीय बाजार में तेल के भावो के आधार पर पेट्ोल डीजल के दामों में कमी बढोतरी की जाए । जब दाम बढे  तो उसी अनुरूप दामों बढोतरी की जावे तथा जब इसमें कमी हो तो उसी अनुरूप दामो मे कमी भी हो लेकिन आश्चर्य जनक बात है कि अन्तर्राष्ट्ीय बाजार मे तेल के दामो मे कमी हुई तो दामो मे उसी अनुरूप कमी नहीं की र्गइं लेकिन दामो मे बढोतरी होते ही तेल कम्पनियों से दामों में बढोतरी कर दी है । ये कैसी समीक्षा हुई । जनता को जब राहत मिलनी चाहिए तब तो न तो सरकारी समीक्षको ने जनता की पैरवी करते हुए तेल कम्पनियों से जनता को राहत दिलाई और न ही किसी राजनीतिक दल ने इस विषय को कभी उछाला । लेकिन जब अन्तर्राष्ट्ीय बाजार मे तेल मे भावों मे इजाफा हुआ या डालर के मुकाबले रूपया कमजोर हुआ तो बिना देरी किये समीक्षको ने दाम बढाने की छूट दे दी

जब जून 2008 में अन्तर्राष्ट्ीय बाजार में कच्चे तेल के दाम अपने उच्चतम स्तर 140 डालर प्रति बैरल पर था तब भी पेट्ोल के भाव इतने नही थे उस समय हमारे देश मे पेट्ोल के दाम 50 रू 56 पेसे प्रति लीटर थे जबकि वर्तमान में अन्तर्राष्ट्ीय बाजार मे तेल के भाव 110 रू प्रति बैरल है तो पेट्ोल के दाम 72 से 74 रू प्रति लीटर हो गए है इन दामों मे केन्द्रीय एक्साइज केन्द्रीय टेक्स वेट राज्य टेक्स आदि अलग से है अर्थात् अलग राज्यो में टेक्स के हिसाब से पेट्ोल 73 से 75 रू प्रति लीटर तक हो सकता है ।

तेल कम्पनियों ने गत  13 सितम्बर 2011 की आधी रात से पेट्ोल के दामो 3 रू 14 पैसे प्रति लीटर की बढोतरी की थी आकडे बताते है कि उस समय भारतीय कम्पनियो को एक डालर के मुकाबले 49 रू 29 पैसे चुकाने पड रहे थे । तथा तेल का अन्तर्राष्ट्ीय भाव भी 110 डालर प्रति बैरल  पर ही स्थिर था । अभी नवम्बर मे  1 रू 82 पैसे प्रति लीटर की जो बढोतरी की गई है उसमे तेल कम्पनियों को एक डालर के मुकाबले 49 रू 20 पैसे ही चुकाने पड रहे है अर्थात् सितम्बर के मुकाबले तेल कम्पनियो को एक डालर के मुकाबले 09 पैसे कम चुकाने पड रहे है तो ऐसे में पेट्ोल के दाम  13 सितम्बर 2011 के स्तर से कम होने चाहिए जबकि तेल कम्पनियो ने डालर के दामों मे  बढोतरी का बहाना बनाकर पेट्ोल के दामो मे 1रू 82 पेसे प्रति लीटर की बढोतरी कर  जनता व सरकार दोनो को धोखा दिया है ।

एक तथ्य यह भी तेल कम्पनियों ने जून 2009 से पेट्ोल डीजल के दामो को बढाने की उन्हे छूट मिली है तब से लेकर अब तक सिर्फ एक बार पेट्ोल के दामो मे कमी की है जबकि हर बार दाम बढाए ही है । जिस समय सरकार ने तेल को दामों को निर्धारित करने का जिम्मा दिया गया उस समय देश मे पेट्ोल के दाम 40 रू 62 पैसे प्रति लीटर थे । तथा अन्तराष्ट्ीय बाजार मे तेल 71 डालर प्रति बैरल था। जुलाई 2009 में ही अन्तर्राष्ट्ीय बाजार मे तेल के भाव 71 से घटकर 62 डालर प्रति बैरल हुए तो भी तेल कम्पनियो ने पेट्ोल के दाम घटाने की बजाय 4 रू 05 पैसे प्रति लीटर बढा दिये अर्थात् पेट्ोल 44 रू 67 पैसे प्रति लीटर कर दिया गया जबकि उन्हे दामो कमी करनी चाहिए थी तेल कम्पनियों ने उस समय भी जनता की जेब काटी । उस समय की समीक्षको की टीम ने क्या आंखे बंद कर रखी थी जब तेल कम्पनियां जनता की जेव काट रही थी । अप्रेल 2010 तक अन्तराष्ट्ीय बाजार मे तेल के भाव 86 डालर प्रति बैरल तक पहुंचे तो तेल कम्पनियों ने भी दाम बढाए लेकिन मई 2010 मे अन्तर्राष्ट्ीय बाजार मे तेल के भावों में फिर कमी आई और मई 2010 मे इसके भाव 74 डालर प्रति बैरल हो गए तो भारतीय तेल कम्पनियों ने पेट्ोल के दाम घटाने की बजाय पेट्ोल 1 रू 40 पैसे प्रति लीटर बढा दिये और जो पेट्ोल अप्रेल 2010 में जनता को 44 रू 47 पैसे प्रति लीटर मिल रहा था मई 2010 में अन्तर्राष्ट्ीय बाजार मे तेल के दाम घटकर 74 डालर प्रति लीटर रह जाने पर भी भारत की जनता को 1 रू 40 पैसे प्रति लीटर महगा करते हुए 45 रू 87 पैसे प्रति लीटर बेचा गया । इस प्रकार तेल कम्पनियों ने जनता की जेव काटने का सिलसिला जारी रखा और प्रति 15 दिन से समीक्षा करने की नीति कागजो मे ही दबी रह गई ।

मई 2010 से अप्रेल 2011 तक अन्तर्राष्ट्ीय बाजार मे तेल के भावो में बढोतरी रही जो 74डालर प्रति बैरल से बढते बढते अप्रेल 2011 में 122 डालर प्रति बैरल तक पहुंच गर्इ्र इस समय तक तेल कम्पनियों ने तेल के भाव 58 रू 37 पैसे प्रति लीटर तक कर दिये थे । मई 2011 मे अन्तर्राष्ट्ीय बाजार मे तेल के भाव गिरकर 112 डालर प्रति बैरल रह गए लेकिन तेल कम्पनियों ने फिर भी मई 2011 में पेट्ोल के दामाे मे 5 रू प्रति लीटर की बढोतरी कर दी जबकि 10 डालर प्रति बैरल की कमी होने के कारण पेट्ोल के दामों में बढोेतरी की बजाय कमी की जानी चाहिए थी यहा भी तेल कम्पनियो ने जमकर लाभ कमाया । अप्रेल 2011 मे जब अन्तर्राष्ट्ीय बाजार मे तेल का भाव 122 डालर प्रति बैरल था तब जनता को पेट्ोल 58 रू 37 पैसे प्रति लीटर मिल रहा था जबकि वर्तमान मे अन्तर्राष्ट्ीय बाजार मे तेल की कीमत 12 डालर प्रति बैरल कम हो चुकी है तथा दाम 110 डालर प्रति बैरल है तो भी भारतीय जनता को पेट्ोल कम दामों की बजाय 10 रू 96 पैसे प्रति लीटर महगा मिल रहा है  तेल कम्पनियों का ये कैसा खेल चल रहा है और समीक्षा कमेटी कैसी समीक्षा कर तेल के दाम बढाने की अनुमति दे रही है  क्या ये मिली भगत से जनता को लूटने का खेल तो पर्दे के पीछे नहीं ख्ाला जा रहा ।

तेल कम्पनियां इस बार पेट्ोल के दाम बढाने की पीछे अन्तर्राष्ट्ीय बाजार मे तेल के दाम बढने का कारण नही बता रही बल्कि तर्क ये दिया जा रहा है कि डालर के मुकाबले भारतीय रूपये का मूल्य कम हो जाने के कारण उनको अब ज्यादा भुगतान करना पड रहा है ।अब कम्पनियों को एक डालर के मुकाबले 49 रू 20 पैसे का भुगतान करना पड रहा है । जबकि अप्रेल 2011 मे उन्हे एक डालर के बदले 44 रू 40 पैसे का ही भुगतान करना पडता था  अर्थात् उन्हे एक डालर के बदले 4 रू 80 पैसे ज्यादा चुकाने पड रहे है जबकि तेल कम्पनिया अप्रेल 2011 से अब तक जनता से 10 रू 96 पैसे प्रति लीटर ज्यादा वसूल रही है । एक बैरल मे करीब 159 लीटर होते है अर्थात् तेल कम्पनियों को 159 लीटर तेल के बदले 49रू 20 पैसे प्रति डालर के हिसाब से 5412 रूपये अन्तर्राष्ट्ीय बाजार में चुकाने पड रहे है जिसकी लागत  करीब 34 रू 03 पैसे प्रति लीटर आती है । इस पर परिवहन चार्ज एक्साइज ड्यूटी  केन्द्रीय कर वेट व राज्य का कर व अन्य शहरो मे यह स्थानीय कर व लेवी अतिरिक्त है । 

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

मेरे आलेख अन्ना टीम के राजनीति की ओर कदम पर राष्ट्ीय चैनल्स पर बहस


मित्रो 9 अक्टूबर 2011 को मैने एक आलेख लिखा था अपने ब्लाग और फेस बुक पर शीर्षक था अन्ना टीम के राजनीति की ओर कदम  जिसमे यह बताया गया था कि अन्ना टीम राजनीति की ओर बढ रही है उस समय शायद कयास लगा हो लेकिन अब मेरे उन विचारो मे लिए गए मुद्दो पर बहस शुरू हो गई है कई राष्ट्ीय चैनल अन्ना टीम के राजनीति मे जाने या न जाने के मुद्दे को लेकर बडी बहस शुरू कर चुके है लेकिन मित्रो मैने तो यह बहस आपके समक्ष 8 दिन पहले ही रख दी थी जिसमे मेरे कुछ मित्रो ने अपने सुझाव भी दिए तो कुछ मित्रो ने इस ओर ध्यान भी नही दिया । लेकिन कोई बात नही अब राष्ट्ीय न्यूज चैनल्स विशेषतः आईबीएन 7 व अन्य पर चल रही इस बहस को देखिए और मेरे आलेख को भी पढकर बताइएगा कि क्या मेरे इस आलेख मे उठाए गये मुद्दो पर ही न्यूज चैनल्स पर चर्चाए हो रही है या मुझे ही लगता है कि इस आलेख मे उठाए गये मुद्दो पर बहस हो रही है कही मुझे भ्रम तो नहीे हो रहा । आप मेरे सच्चे मित्र है तो मुझे बताइऐगा तो सही वरना मै तो मुगालते मे ही रहूगा  लेकिन इसके लिए आपको मेरा ये आलेख पढना पडेगा तभी आप ईमानदारी से अपनी राय दे सकेगे । आपकी राय मेरा मार्गदर्शन बनेगी ।

       खासकर उन मित्रो से मेरा विशेष आग्रह रहेगा जो सक्रिय है और अपने विचार फेस बुक या अन्य किसी मचों पर व्यक्त करते रहते है ।

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

अन्ना टीम के राजनीति की ओर कदम


अन्ना की टीम सामाजिक सरोकारो मे मिली सफलता के बाद अपने कदम राजनीति की ओर बढाने की कोशिश कर रही है । समाज मे बढ रहे भ्रष्ट्ाचार को मिटाने के प्रयासो के तहत अन्ना टीम को मिली भारी सफलता के बाद अन्ना टीम को यह लगने लगा है कि जनता का भारी समर्थन उसके साथ है उनकी टीम को यह दंभ हो गया है कि जिस तरह समाज में व्याप्त भ्रष्ट्ाचार को दूर करने मे उसे भारत की जनता को जो जन समर्थन मिला वह उसे राजनीतिक सफलता भी दिला सकता है । हांलाकि अन्ना टीम ने अभी तक पूरी तरह राजनीति मे आने की घोषणा तो नहीं की है लेकिन हिसार मे हो रहे लोकसभा चुनावों मे उसने कांग्रेस को हराने का आव्हान् कर राजनीति मे आने के संकेत दे दिए है ।

अन्ना टीम इस चुनाव मे सीधे तौर पर तो मैदान मे नहीं है लेकिन उसने सत्तारूढ कांग्रेस के पार्टी के उम्मीदवार को जनता से अपील कर एक प्रयोग करने का प्रयास किया है कि उनकी अपील को जनता कितनी तव्वजो देती है यदि इस अपील का व्यापक असर होता है और कांग्रेस का उम्मीदवार हार जाता है तो आगे रणनीति तय की जा सकती है । अन्ना टीम मे अरविन्द केजरीवाल  जैसे आई आई टी से निकले प्रतिभाशाली आई ए एस है तो किरण बेदी जैसी आईपीएस  रह चुकी अधिकारी एवं सामाजिक कार्यकर्ता है दूसरी तरफ पूर्व न्यायाधीश व पूर्व कानून मंत्री  रह चुके पिता पुत्र की जोडी है ।

  कहना न होगा कि इस टीम मे महत्वाकांक्षी लोग है जो अपने बूते कुछ करना चाहते है । भ्रष्टाचार के विरूद्ध लडी गई लडाई मे मिले भारी जन समर्थन ने इस टीम की महत्वकांक्षाओं को बढा दिया है । लगता है इस टीम को इस आन्दोलन के बाद यह समझ मे आ गया है कि जन समर्थन अलग बात है और संसद मे अपने अनुसार कानून बनवाना अलग बात ं। इसीलिए अन्ना टीम ने यह तय कर लिया लगता है कि जन सर्मथन के साथ साथ अपनी बात मनवाने के लिए संसद मे अपने प्रतिनिधी भी होना जरूरी है और उसी रणनीति के तहत इस टीम ने पहले हरियाणा मे 13 अक्टूबर 2011 को हो रहे लोकसभा उप चुनावो में अपनी अपील का असर देखने के लिए सत्तारूढ काग्रेस पार्टी के उम्मीदवार को हराने की अपील कर अपना पहला राजनीतिक प्रयोग किया है । बडे सोच समझ के साथ जनता को यह नहीं बताया गया है कि वहा की जनता किस पार्टी के उम्मीदवार को हराए । ये जनता पर छोडा गया है कि वह किसी भी को भी जिताए लेकिन कांग्रेस के प्रत्याशी को हराए । और जो इसका कारण बताया जा रहा है  वह यह है कि सत्तारूढ कांग्रेस पार्टी जन लोकपाल बिल को लाने के प्रति गंभीर नहीं है ।

इसके पीछे कई हेतु छिपे हुए लगते है जिनमे एक तो यह कि अभी अन्ना टीम किसी भी राजनीतिक पार्टी के साथ जुडी नहीं है यदि किसी पार्टी उम्मीदवार को जिताने की अपील की जाताी हे तो इस टीम पर उस पार्टी से जुडे होने का आरोप लग सकता है इसके अलावा अगर उसकी अपील का व्यापक असर होता है तो देश की सभी बडी राजनीतिक पार्टीयां अन्ना टीम से जुडने को तैयार हो जाएगी जिससे अन्ना टीम को भविष्य मे यह निर्णय लेने का अवसर मिल जाएगा कि वह किस राजनीतिक पार्टी के साथ अपना गठजोड करें इसके अलावा दूसरा विकल्प यह रहेगा कि यदि हिसार उपचुनाव मे कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी की बडी हार हो जाती है तो वह अगले वर्ष 5 राज्यो मे होने वाले विधान सभा चुनावो मे अपना राजनीतिक दल बनाकर अपने उम्मीदवार खडे कर सकती है । इन दोनो विकल्पो के कारण ही अन्ना टीम ने किसी भी अन्य पार्टी के प्रत्याशी को जिताने की अपील जनता से नही की है सिर्फ जनता को काग्रेस के उम्मीदवार को हराने की अपील कर पत्ते अपने हाथ मे रखने का प्रयास किया गया है ताकि इस चुनाव नतीजे के आधार पर ही भावी योजना को अंजाम दिया जा सके ।

अन्ना टीम ने यूपीए सरकार पर दबाव बनाने के लिए शीतकालीन सत्र मे जन लोकपाल बिल पारित कराने की शर्त लगाई है क्योकि यह टीम जानती है कि सरकार के लिए शीतकालीन सत्र मे यह बिल पारित कराना टेढी खीर है अभी यह बिल संसद की स्थाई समिति के पास विचाराधीन है जिसमे सभी पार्टीयों के संासद है और यूपीए के अलावा दूसरे गठजोड यह नहीं चाहेगे कि यह बिल शीतकालीन सत्र मे पारित हो जाए इसलिए वे इसे स्थाई समिति मे ही रोकने का भरसक प्रयास करेगे ताकि सरकार की किरकिरी हो और अन्ना टीम  सरकार के लिए परेशानी पैदा करे । वे गठजोड नही चाहते कि सरकार और अन्ना टीम जनता मे वाहवाही ले जाए इसलिए वे इसे स्थाई समिति से आगे जाने ही नही देना चाहेगे । यदि सरकार ने येन केन प्रकारेण इसे  भरसक प्रयास कर शीतकालीन सत्र मे पेश कर करवा ही दिया तो संसद इसे पारित नहीं करेगी क्योकि किसी भी बिल को पारित करने के लिए संसद के बहुमत का होना जरूरी है और यूपीए सरकार कितने ही दलो की वैशाखियो पर टिकी है जो उसे ऐसा करने नहीं देगे । इस प्रकार विपक्ष अपनी योजना मे सफल हो सकता है ।

अन्ना टीम के नीति निर्धारक ये जानते है इसलिए उन्होने घोषणा कर दी है कि यदि सरकार ने शीतकालीन सत्र मे जन लोकपाल बिल को पारित नहीं किया तो आगामी साल 5 राज्यो मे होने वाले विधानसभा चुनावो मे वे कांगेस को हराने के लिए जी जान  लगा देगे । इसमे भी इस टीम ने यह घोणणा नही की है कि वह अपने उम्मीदवार उतारेगी या किसी दूसरे दल का समर्थन करेगी । ये भी इस टीम मे अपनी मुठ्ठी मे रखा है जो हिसार के उपचुनावो के  परिणामों के बाद खुलेगी । भाजपा मे भी अच्छे नीति निर्धारक है उन्होने भी भावी रणनीति के तहत अन्ना टीम को अपनी ओर से जन लोकपाल बिल का समर्थन  करने का पत्र सौप दिया है ताकि राजनीति करवट बदले तो वे यह कह सके कि हमारी पार्टी ने तो अन्ना टीम को कभी का समर्थन दे दिया । ताकि भविष्य मे यदि  जरूरत पड जाए तो अन्ना टीम का समर्थन हासिल किया जा सके । ये निश्चित सा लगता है कि अन्ना टीम राजनीति मे कदम रखेगी क्योकि उसके जो एजेडा है  उसमे चुने हुए सांसदो को वापस बुलाने का अधिकार जनता को देना आदि जैसे कई लोक लुभावन बाते है जिसे कोई राजनीतिक दल स्वीकार नहीं कर सकता । ऐसे मे इस टीम के पास अपने उम्मीदवार मैदान मे उतारने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है । इसलिए भाजपा जान गई है कि अन्ना टीम की भविष्य मे उसे कहीं न कहीं जरूरत पडने वाली है चाहे सरकार बनाने मे ही क्यो न पड जाए ।

सत्तारूढ कांग्रेस सरकार अभी अन्ना टीम को लेकर भावी रणनीतिक रूप से तैयार नहीं लगती । अभी तो वह अन्ना टीम से पार पाने के लिए जूझ रही है । जन लोकपाल बिल को शीतकालीन सत्र मे पारित करवाकर सत्तारूढ सरकार एक बार अन्ना टीम को मना सकती है लेकिन अन्ना टीम ने तो अपनी आगामी योजना पहले से ही घोषित कर दी है कि उसका अगला कदम चुने जन प्रतिनिधियो को वापस बुलाने का अधिकार मांगने का होगा । ऐसे मे किसी भी सत्तारूढ दल के लिए परेशानी ही होनी है । चाहे वह कांग्रेस गठबंधन की सरकार हो या चाहे अन्य गठबंधन की सरकार । अन्ना टीम सत्तारूढ सरकार के लिए परेशानी का सबब बनेगी ही ।

अन्ना टीम जानती है कि कोई भी सरकार यह आत्मघाती कदम नहीं उठा सकेगी इसलिए जनता को अपनी ओर मोडने तथा सत्ता के गलियारो का स्वाद चखने के लिए यह जरूरी है कि वह स्वयं अपने उम्मीदवार मैदान मे उतारे और इस एजेडा के सहारे उसकी वैतरणी पार होती भी लगती है । इसी योजना के तहत अन्ना ने घोषणा की है कि वह पूरे देश मे घूमकर अपनी टीम तैयार करेगे ओर ऐसे युवाओ को चुनाव मैदान मे उतारेगे जिन्हे वे परख लेगे । अर्थात् भावी योजना का खाका तैयार हो चुका है अन्ना टीम का । अब यदि 2014 के लोकसभा चुनावों मे अन्ना टीम को जनता ने पूर्ण समर्थन दे दिया तो सत्ता का स्वाद अन्ना टीम भी चख लेगी और ये बहुत ही मुमकिन है कि सत्ता मे आने के बाद अन्ना टीम भी अन्य दलो की तरह जनता से किये वादे भूल जाए क्योंकि सत्ता का नशा होता ही ऐसा है कि अच्छे अच्छो को अंधा बना देता है वे लोग जो जनता से वादा कर सत्तासीन होगे वो ही भूल जाऐगे कि उन्होने चुने हुए जन प्रतिनिधियो को वापस बुलाने का अधिकार जनता को दिलाने का वादा किया था । याद होगा आपको 1977 का दौर जब जनता ने कांग्रेस का सूपडा साफ कर दिया था लेकिन वो ही सरकार ढाई साल भी नहीं चल सकी थी। और यदि अन्ना टीम को 2014 के लोकसभा  चुनावों मे सरकार बनाने का अवसर नहीं मिलता है या स्पष्ट बहुमत नही मिलता है तो भी अन्ना टीम के महत्वकांक्षी लोगो को तो सत्ता सुख मिल ही जाएगा  क्या वे संसद मे उस बिल को पास करवा सकेगे ।

यदि वास्तव मे अन्ना टीम को जनता के साथ रहना है तो उसे सत्ता मे आने की योजना के स्वप्न नहीं देखने चाहिए  उन्हे केवल सामाजिक सरोकारो के लिए लडने वाली टीम के रूप मे ही रहकर जनता के साथ मिलकर उसे सरकार से जनता को उसके हक दिलाने का प्रयास करते रहना चाहिए चाहे सरकार किसी भी दल की क्यों न बने । तभी जनता उसके साथ बनी रहेगी और प्रतिष्ठा भी । अन्यथा अन्ना टीम ने जो प्रतिष्ठा जनता मे बनाई है उसे भी खोना पड सकता है  क्योकिं सत्ता के नशे ने लोकनायक जय प्रकाश नारायण के आन्दोलन  उनके संघर्ष व उनके सत्ता के मोह त्याग को भी ढाई सालो मे ही भूला दिया था । जय प्रकाश नारायण के आन्दोलन ने ही जनता पार्टी को सत्ता के गलियारो तक पहुंचाया था तथा सत्ता के मोह से दूर जय प्रकाश नारायण ने कोई भी पद नहीं लेकर अपने लोगो को एक अच्छे शासन देने की आश मे सत्ता की लगाम सौपी थी जिन्हे उनके अनुयायी ढाई वर्ष भी संभाल नहीं सके थे । 

बुधवार, 21 सितंबर 2011

विद्यालयो का समय साढे सात घन्टे किया जाना बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से कितना उचित


 राजस्थान मे विद्यालयो का समय आगामी 1 अक्टूबर 2011 से सुबह साढे आठ बजे से शाम 4 बजे तक किया जा रहा है । शिक्षा का अधिकार कानून की व्यवस्था अनुसार ऐसा किया जा रहा है ऐसा सरकार का कहना है । शिक्षा में इस तरह के प्रावधानो को लाने का तात्पर्य यह है कि या तो हमारे नीति निर्धारको को  बाल मनोविज्ञान का भान नही है या ये लोग जान बूझकर बाल मनो विज्ञान की अनदेखी कर रहे है ।

       विद्यालयो का समय बढाने के पीछे तर्क ये दिया जा रहा है कि सामान्य छात्रो को तो विद्यालयो मे हमेशा वाले समय ही रहना होगा लेकिन जिन छात्रो ने इस वर्ष घर मे रहकर पढने बाबत जानकारी देकर प्रवेश लिया है अथवा जो छात्र कमजोर है उनको इस अतिरिक्त समय मे पढाया जायेगा । यानि अतिरिक्त कालांश देकर उन्हे इस लायक बनाने का प्रयास  किया जाएगा कि वे सामान्य छात्रो के स्तर तक आ जाए । देखने व सुनने मे यह बहुत ही अच्छी योजना दिखती है लेकिन व्यावहारिक रूप से इसे बाल मनौविज्ञान के विपरीत ही कहा जाएगा।

क्या कहता है बाल मन

       बाल मनो विज्ञान कहता है कि बालक के सीखने की प्रक्रिया स्वाभाविक एवं मनोरंजक दायी होनी चाहिए । जब बालक का मन हो तभी उसे पढाया जावे तो अधिगम आसान होता है । बालक खेल खेल मे ज्यादा सरलता से सीखता है लेकिन उसे यदि यही अधिगम की प्रक्रिया जेल लगने लगे या उबाउ लगने लगे तो फिर वहां अधिगम किसी भी परिस्थिति में नही हो सकता है । सरकार का ये तर्क कि कमजोर बालको को अतिरिक्त समय पढाया जाकर उन्हे सामान्य बालको के स्तर तक लाने के लिए ऐसा किया जा रहा है  बाल मनो विज्ञान के मानदण्डो के विपरीत है । एक कमजोर छात्र को लगातार साढे 7 घन्टे विद्यालय मे रोक कर उसे सामान्य बालक के स्तर तक कैसे लाया जा सकता है । वैसे भी कमजोर बालक का मानसिक स्तर  सामान्य बालक के मानसिक स्तर से कम होता है उसकी एकाग्रता इतने अधिक समय तक किसी भी स्तर मे नहीं बनी रह सकती । जब किसी बालक की एकाग्रता सामान्य बालक से भी कम हो और उसे सामान्य बालक से भी अधिक समय तक एकाग्र करने का प्रयास किया जावे तो उसका क्या परिणाम होता है शायद हमारे शिक्षा विद् या शिक्षा का अधिकार कानून मे ऐसा प्रावधान करने वाले नही जानते । ऐसी स्थिति मे बाल मन पर इसका विपरीत असर पडता है या फिर बालक स्कूल से कतराने लगता है उसे स्कूल जेल जैसी व उबाउ लगने लगती  है और वह स्कूल से भागने या आने से कतराने  लगता है ।

       बालक को स्वाभाविक तरीके से कराया गया अधिगम ही सरल सरस व प्रभावी हो सकता है । यदि उसे अन्य विधार्थियो से अलग रखकर अधिगम कराने का प्रयास किया जाता है तो उसके अधिगम की गति बढने की बजाय घट सकती है या फिर वह इतना कुठित हो सकता है कि वह शिक्षण से मुंह ही मोड ले शिक्षा मे ऐसी व्यवस्था करने वाले स्वयं एक प्रयोग अपने बालक पर करके देखे और उसके बाद उसके परिणामों को देखे तो उनको यह बात आसानी से समझ मे आ सकेगी कि यदि एक सामान्य बालक या कुशाग्र बालक को भी उसकी इच्छा के विपरीत सामान्य समय से अतिरिक्त रोक कर अधिगम कराया जाए तो उसके सीखने की गति पर विपरीत प्रभाव पडेगा वह सामान्य परिस्थितियो की अपेक्षा धीरे धीरे कम एकाग्र होगा और एक परिस्थिति ऐसी आएगी कि उसका अधिगम सामान्य से भी कम अथवा उसके स्वयं के पूर्व के स्तर से भी कम होने लगेगा । यह मनोविज्ञान कहता है । यानि सामान्य परिस्थितियो का अधिगम अधिक प्रभावी एवं फलदायक होता है जबकि असामान्य परिस्थितियां बालक के मन पर बोझ का काम करती है जो बालक के मन मस्तिष्क पर विपरीत प्रभाव डालती है । वर्तमान बढाया जा रहा समय एक बालक के मन मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालेगा । उसे अतिरिक्त समय मे आना दूसरे बालको से अलग करेगा । हालांकि यहा उद्देश्य उसे सामान्य बालको के स्तर तक लाना है लेकिन उसे जल्दी शाला बुलाना या शाला समय के बाद रोकना उसकी मानसिक स्थिति को प्रभावित करेगा । उस बालक को लगेगा कि  उसे अन्य बालको से अलग रखा जा रहा है जिसके कारण उसे विद्यालय जेल जैसा या उबाउ स्थान होने का आभास देगा जो उसे अपने स्वाभाविक मानसिक स्तर से भी नीचे ले सकता है । इसका प्रभाव ये होगा कि या तो ऐसे बालक विद्यालय आना छोड देगे अथवा उनकी शारीरिक स्थिति कमजोर होने लगेगी ।

       इसके अलावा जब किसी बालक को विद्यालय मे साढे 7 घन्टे रोका जाएगा तो उसे अतिरिक्त उर्जा की जरूरत होगी लेकिन इसके लिए कोई व्यवस्था नही की गई है सामान्यतः बालक को 3 से 4 घन्टे के बाद भूख का अहसास होने लगता है । सुबह साढे 8 बजे शाला आने वाला बालक अपने घर से 15 मिनट पूर्व तो रवाना होगा ही और यदि उसे शाम 4 बजे तक रोका जाता है तो इस बीच उसे उर्जा प्राप्त करने के लिए  दो बार खाने की तलब होगी । ऐसे मे विद्यालयो मे क्या कोई दूसरी व्यवस्था की गई है ।  एक समय तो मिड डे मील की व्यवस्था है लेकिन दूसरे अतिरिक्त समय मे बालको को क्या पौष्टिक आहार दिया जाएगा ये अभी तय नहीं है ।

       राजस्थान की भौगोलिक परिस्थितियां भी अन्य राज्यो से अलग है यहां सर्दियो मे अधिक सर्दी और गर्मियो मे सुबह से ही सूर्य अपनी प्रचण्डता दिखाने लगता है । सर्दियों में सुबह 7 बजे तक सूर्य के दर्शन तक नहीं होते । कोहरा व ठंड इतनी अधिक होती है कि बालक के लिए  वर्तमान सर्दियो के साढे दस बजे के समय मे भी आना दूभर होता है तो क्या वह नये समय साढे आठ बजे विद्यालय पहुच सकेगा । जो कि प्रातः साढे 8 बजे का होने वाला है । इसी प्रकार नये समय के अनुसार गर्मियो मे यह समय साढे 7 बजे से दोपहर 3 बजे तक होगा । राजस्थान की भौगोलिक परिस्थितियां ऐसी है कि गर्मियों मे सूर्य अपनी प्रचण्डता सुबह 10 बजे बाद ही दिखाने लगता है पिछले कई सालो से सरकार को इसी कारण विद्यालयो का समय 11 बजे तक करना पडा है फिर भी पिछले अनुभवो से कोई सीख नहीं लेते हुए नए शिक्षा के अधिकार की आड मे गर्मियो मे यह समय सुबह साढे सात से दोपहर 3 बजे तक रखा गया है । लगता है उच्च पदो पर ऐसा  निर्धारण करने वाले हमारे अधिकारी व नीति निर्धारक घटित हो चुकी  परिस्थितियो से भी कोई अनुभव नहीं लेते । तभी अभी तो शिक्षक समुदाय विरोध में उतरा है और जब व्यवहार मे अपने बालको पर मानसिक दबाव जनता महसूस करेगी तो वह भी भविष्य मे इसका विरोध कर सकती है ।

       सरकार विद्यालयो का समय बढाकर शिक्षको तो साढे 7 घन्टे तक शालाओ मे रोक सकती है लेकिन बालको को रोक सकेगी इसमे सन्देह दिखाई देता है । वर्तमान स्थिति ये है कि साढे 5 घन्टे के विद्यालय समय मे भी अभिभावक अपने बच्चो को खेती के समय मे विद्यालय नहीं भेजते तो फिर साढे 7 घन्टे का समय होने पर तो शायद ही वे अपने बच्चो को स्कूलो मे भेजे । क्योकि पूरा दिन तो बच्चो का स्कूलो मे ही बितने वाला है ऐसे मे बच्चो की स्कूलो मे उपस्थिति कम ही रहेगी । फसलो के पकने के समय अभिवावक बच्चो को खेत की निगरानी के लिए रोक लेते है और स्वयं बाजार आदि मे अपने अन्य कार्यो को निपटाना चाहते है क्योकि फसलो की कटाई के समय उनके अन्य काम होना मुश्किल होते है अतः वे फसल के पकने व कटाई होने के बीच अपने अन्य घरेलू काम निपटाना चाहते है ऐसे मे फसल के पकने तक उनकी रखवाली का काम वे अपने बच्चो से कराना चाहते है और यही कारण है कि यदि आकलन किया जावे तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि फसलो के पकने की अवधि मे स्कूलो मे छात्रो की उपस्थिति अपेक्षाकृत कम रहती है ।

 गम्भीर चिन्तन करने योग्य है कि क्या ऐसे मे बढा हुआ समय बच्चो व अभिभावको के लिए उचित रहेगा । गर्मियो मे राजस्थान मे यह स्थिति रहती है कि स्कूलों में पीने के पानी का अभाव रहता है इसके अलावा बच्चो को प्रचण्ड गर्मी के कारण आने जाने मे परेशानी होती है । प्रतिवर्ष ये समाचार मिलते है कि अमुक जगह बच्चे स्कूल से निकले लेकिन गर्मी के कारण प्यास की वजह से अपनी जान बचा नहीं सके । इन सब परिस्थितियो को ध्यान मे रखकर सरकार को स्कूलो के बढाए जा रहे समय पर चिन्तन कर पुनर्विचार करना चाहिए तथा मनो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यदि उसे लगे कि ये सही है व बाल मनो विज्ञान के अनुकूल है तो ही इसे लागू करना चाहिए । शिक्षा विभाग को प्रयोग शाला  बनाना उचित नहीं है कि ये देखा जाएं कि एक बार देखते है यदि उचित नहीं हुआ तो फेरबदल कर देगे यह सोच शिक्षा का बंटाधार कर देगी । शि़क्षा जैसे क्षेत्र मे प्रयोग उचित नहीं है ।

 हर विकसित देश मे किसी भी स्थिति को लागू करने से पूर्व उस पर प्रयोग किये जाते है उसके परिणामों को देखा जाता है और यदि वे अनुकूल हो तो ही उसे पूरी व्यवस्था मे लागू किया जाता है लेकिन हमारे देश मे पूरी व्यवस्था पर ही प्रयोग किया जाता है जिसका परिणाम यह होता है कि उसे या तो बदलना पडता है या फिर वापस लेना पडता है । जो कि शिक्षा जैसे क्षेत्र मे उचित नहीं है । आवश्यकता इस बात है कि शिक्षा जैसे क्षेत्र मे किसी भी व्यवस्था को लागू करने से पूर्व उस पर गंभीर चिन्तन ही नहीं बल्कि उस पर प्रायोगिक तौर पर प्रयोगो के सफल व सुफल परिणाम आने पर ही लागू किया जाना चाहिए तब ही शिक्षा मे हमें सही परिणाम मिल सकेगे ।