एफ डी आई के मसले पर सभी पार्टीया राजनीति कर जनता को गुमराह कर रही
है । जनता यह नहीं जानती कि खुदरा के क्षेत्र में विदेशी कम्पनियों के आने से
फायदा होगा या शोषण । जनता को यह बात ईमानदारी से बताने वाला कोई नहीं है ।
राजनीतिक दल तो अपनी अपनी राग अलाप रहे है और जनता को मूर्ख बना रहे है । जनता को
इसका गुणावगुण के आधार पर फर्क बताने वाला इस देश में कोई नहीं है। एकमात्र
अपेक्षा मीडिया से हो सकती थी लेकिन वह भी राजनीतिक नेताओं की बात छापकर अपने कर्तव्य
की इति श्री कर रहा है जबकि होना तो यह चाहिए कि मीडिया इन राजनैतिक नेताओं के
विचार तो छापता ही साथ ही जनता को इसके गुण व दोष भी बताता लेकिन इतना चिन्तन कौन
करें रही बात विशेषज्ञों की तो उनकी बात को मीडिया क्यों तव्वजों दें हालाकि कुछ चैनलों ने बहस कराई लेकिन वह किसी
सार्थक हल तक नहीं पहुच पाई जिसके आधार पर जनता इन राजनैतिक दलों की राजनीति समझ
सकें
यही
भारतीय जनता पार्टी जो आज खुदरा में एफडीआई का विरोध कर रही है जो सत्ता
में थी तो एफडीआई को लागू करना चाहती थी
लेकिन आज जब वह विपक्ष में तो इसे जनता विरोधी बता रही है । अब उससे कौन पूछे कि
क्यों आप जनता को मूर्ख बना रहे है जब देश की अस्मिता का सवाल है तो उस समय आप
भी इसे लागू करने वाले थे क्या उस समय देश की अस्मिता बची रहती \ आज आप
देश को विदेशी कम्पनियों के गिरवी रखने का आरोप कांग्रेस पर लगा रहे हैं । भाजपा 2002 में जब
सत्ता में थी तब एफडीआई को पास कराना चाहती थी तब तत्कालीन विपक्ष के रूप में
कांग्रेस ने इसका विरोध किया था और यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका था । उसके बाद
भारतीय जनता पार्टी के 2004 के
घोषणा पत्र मे खुदरा व्यापार में एफडी आई की 100 प्रतिशत
भागीदारी की बात की गई थी ।
विडम्बना
देखिए कि जिस कांग्रेस ने 2002 में एफडीआई का विरोध किया था वही
कांग्रेस 2012 में इसे लागू कर रही है । आज काग्रेस को
एफडीआई को लागू करने में फायदे नजर आ रहे है जबकि 2002 में उसे
यह देश हित में नहीं लग रहा था । इसका
तात्पर्य यह है कि सभी राजनैतिक दल अपने प्रस्तावों को पास कराने तक ही सीमित है
उनका देश से या जनता से कोई लेनादेना नहीं है । देश की अस्मिता बचें या न बचें इन
दलों को कोई फर्क नहीं पडता केवल अपना प्रस्ताव पारित कराना ही इनका ध्येय बन गया
है । नैतिक मूल्यों का इतना पतन हो चुका है कि देश की अस्मिता किसी भी दल के लिए
दूर की कौडी हो गई हैं । संख्या बल के आधार पर
वह gj प्रस्ताव
पारित कराया जा रहा है जिसका दूरगामी परिणाम देश हित में हो या न हो इसकी किसी भी
दल को कोई फिक्र नहीं है । जबकि आदर्श
स्थिति तो यह होनी चाहिए कि सभी राजनैतिक दल पूरी इमानदारी से देश को बताए कि इस
एफडीआई से क्या नुकसान है और क्या फायदे फिर उसके आधार पर संसद में उस पर मंथन हो और
संसद को लगे कि इससे देश को फायदा होगा रोजगार के साधन बढेगे किसानों उपभोक्ताओं
का शोषण नहीं होगा तो ही उसे बिना किसी राजनैतिक दुभार्वना से पारित किया
जावें लेकिन आज हो यह रहा है कि सत्तापक्ष किसी भी तरह से अपने द्वारा लाए गये
प्रस्ताव को पारित कराना ही अपना मकसद समझने लगे है । संख्याबल के आधार पर हर उस
प्रस्ताव को पारित कराया जा रहा है जिसके दूरगामी परिणाम चाहे कुछ भी रहे ।
ऐसे में
मीडिया व ऐसे विषयों पर विशेषज्ञों को आगे आकर जनता को सही और गलत का रास्ता बताना
चाहिए ताकि ये जो राजनीतिक दल राजनीति कर रहे है उसको आम जनता जान सके । मीडिया का
यह कतव्र्य है कि वे हर मसले पर जनता को निष्पक्षता से बताए कि राजनैतिक दल क्या
कह रहे है और वास्तवकिता क्या है तब कहीं जनता इन राजनैतिक दलों का चरित्र जान
सकेगी । हालाकि एफडीआई के मसले पर जनता ने सीधे प्रसारण में कई राजनैतिक दलों के
चरित्र को देख लिया है । जिसमें प्रमुख दो दलों के अलावा कई अन्य दलों के चेहरे
भी सामने आ गए है जिनकी कथनी और करनी में बहुंत ही फर्क हैं । समाजवादी पार्टी
व बहुजन समाज वादी पार्टी के नेताओं को
जनता ने संसद में एफर्डीआइं का विरोध करते देखा लेकिन इन्ही पार्टीयों ने जानबूझ
कर संसद से बर्हिगमन कर इसे संसद में पारित कराने का रास्ता साफ कर अपने दोहरे चरित्र
का उदाहरण पेश किया । यदि वास्तव में ये दोनो दल एफडीआई के गुणावगुण के आधार पर
इसका विरोध कर रहे हैं तो फिर उन्होने इसके पारित होने का रास्ता साफ क्यों किया \ क्या इसे
नैतिक मूल्य आधारित राजनीति कहेगें\ ईमानदारी
से देश हित में आपको मतदान में भाग लेना चाहिए था ताकि यदि एफडीआई देश हित का
प्रस्ताव नहीं है तो उसे लागू करने में मदद नहीं करनी चाहिए था। जनता सब देख भी
रही है और समझ भी रही है मौका आने पर जनता
चूकेगी भी नहीं । हालाकि हमारे देश की जनता अन्य विकसित देशों के नागरिकों की तरह
जागरूक व सर्तक नहीं हैं लेकिन राजनैतिक
दलों के ऐसे चरित्रों से उसे जागरूक होने का मौका मिल रहा है । हालाकि जनता को
जागरूक होने में समय लगेगा और तब तक
राजनैतिक दल इसका फायदा उठाकर संख्याबल के आधार पर अपनी पंसद के प्रस्ताव संसद में
पारित करवाते रहेगे ।
अमेरिका
में सार्थक बहस के बाद राजनेता पूरी ईमानदारी से किसी भी प्रस्ताव को संसद में
पारित करते है यदि उन्हे लगता है कि इससे देश हित प्रभावित होगा तो वे ऐसे किसी भी
प्रस्ताव पर अपनी मुहर नहीं लगाते जबकि हमारे यहां व्हिप जारी होता है और संख्याबल
के आधार पर किसी भी प्रस्ताव को पारित करा लिया जाता है । ये कैसा खेल खेल रही है
हमारी राजनीतिक पार्टीया \ जिनमे देश हित हो या न हो केवल पार्टी हित और व्हिप ही सर्वोपरि हे
। जैसा कि भाजपा कह रही है एफडीआई से विदेशी कम्पनिया कब्जा जंमा लेगी यहा के छोटै व्यापारी बर्बाद हो जाएगे किसान इन
विदेशी कम्पनियों के चंगुल में फंस जाएगे तो वह ही बताए कि इतने नुकसान आपको नजर आ रहे है तो जब आप सत्ता
में थे तो इसे क्यों लाना चाहते थे क्या आप जनता को मूर्ख समझते है कि जब आप कोई
प्रस्ताव लाए या अपने घोषणा पत्र में उसे शामिल करें तब तो वह फायदेमंद होगा और
अन्य कोई लाएगा तो उसमें इतनी कमिया नजर आने लगी । ये कैसी राजनीति कर रहे है आप
जनता के साथ \ भाजपा तो देश हित देखने वाली सबसे बडी पार्टी समझती है अपने आपकों फिर ये
कैसा देश हित का उदाहरण पेश कर रही है
मेरी राय
में अब समय आ गया है कि राजनैतिक दलों के ऐसे चरित्र को देखते हुए मीडिया को अपनी
पूरी ईमानदारी निष्पक्षता एवं जिम्मेदारी से अपनी भूमिका
निभानी चाहिए । उसे केवल राजनीतिक दलों के स्पोकमेन की तरह नहीं इसके साथ साथ हर
उस प्रस्ताव के गुण दोषों को विषय
विशेषज्ञों की राय को जनता को दिखाना
चाहिए जिसका असर इन प्रस्तावों के पारित होने या न होने से होने वाला है । हालाकि
जनता उस पर कर कुछ नहीं सकेगी लेकिन उसमें जनता को उन राजनैंतक दलों के चरित्र का
पता चल सकेगा जो उसे गुमराह कर रहे है और आगामी चुनावों मे उसे सही व गलत राजनैतिक
दल की पहचान करने में आसानी होगी । जिससे लोकतंत्र मजबूत होगा न की राजनीतिक दल ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें