बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

कितना दुभाग्य्रपूर्ण है कि जरा सा आधार मिलते ही तमिलनाडु सरकार ने वोटो के राजनीतिक फायदे के लिए एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्यारों को रिहा करने का मानस बना लिया

हमारे देश की राजनीति का इतना पतन हो गया है कि उसे वोटो की राजनीति के आगे कुछ दिखाई ही नहीं देता चाहे उसके लिए इन राजनीतिक दलों को कुछ भी क्यों करना पडे। नैतिकता और न्यायशीलता के सिद्धान्त को हमारे देश के लगभग सभी राजनीतिक दल भूला बैठे है देश के पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारों की फांसी की सजा को सुप्रीम कोर्ट ने उम्र कैद में क्या बदला कि तमिलनाडु की जयललिता सरकार ऐेसे हत्यारो को जेल से रिहा करने के लिए तैयार हो गई सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ यह कहा कि यदि सरकार चाहे तो उन्हे रिहा कर सकती है अर्थात् कोर्ट द्वारा थोडी सी नरमी बरती जाना प्रतीत होते ही वहां की सरकार आगामी लोकसभा चुनावों में तमिल लोगो के वोट बटोरने के लिए ऐसे हत्यारों को छोडने को तत्पर हो गई ये तक नहीं सोचा कि सुप्रीम कोर्ट ने इतनी लंबी अवधि तक हत्यारों की दया याचिका लंबित रहने से नाराज होकर यह फैसला सुनाया ताकि भविष्य में ऐसे प्रकरणों का शीघ्र निस्तारण करने की दिशा में त्वरित कार्यवाही किया जाना सुनिश्चित किया जा सके लेकिन हमारे राजनीतिक दलो को कोर्ट के इय फैसले के पीछे छिपी भावना से कोई सरोकार नहीं उन्हे तो अपना राजनीतिक फायदा कैसे हो यह दिखाई देता है कितना दुभाग्य्रपूर्ण है कि जरा सा आधार मिलते ही तमिलनाडु सरकार ने वोटो के राजनीतिक फायदे के लिए एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्यारों को रिहा करने का मानस बना लिया जबकि नैतिकता यह कहती है कि सुप्रीम कोर्ट की भावना को समझते हुए भविष्य मे कोई सजायाफ्ता इस तरह बच नहीं निकल सके उसके पुख्ता इंतजाम की व्यवस्था राज्य एवं केन्द्र सरकारों को करनी चाहिए लेकिन इसके बजाय उनको रिहा करने का एलान करना ऐसे मंसूवो वालों का हौसला अफसाई का काम करेगा
सुप्रीम कोर्ट ने जैसे ही सरकार की मंशा पर किसी फैसले को छोडा वैसे ही तमिलनाडु की राज्य सरकार ने तुंरत संज्ञान लेकर उन्हे तीन दिन में छोडने का एलान कर दिया सिर्फ इसलिए कि अप्रेल मई में लोकसभा चुनाव होने है उसमें सरकार को कुछ सीटे ज्यादा मिल सकती है लेकिन ये नहीं सोचा कि इससे समाज पर और इस तरह की साजिश करने वालो पर क्या प्रभाव पडेगा समाज में जहां अपराधियों के होसले बढेगे वहीं सामाजिक असंतुलन बढेगा यही नहीं वर्ग संघर्ष की स्थिति भी सकती है जबकि न्याय प्रिय सरकार से अपेक्षा तो यह की जाती है वह समाज में समता का विकास करे और जनता को ऐसा भरोसा दे कि अपराधियों के लिए कोई सहानुभूति नहीं है इससे यह भी साबित होता है कि यदि हमारी न्याय व्यवस्था निष्पक्ष नहीं हो तो हमारी सरकारे तो वोटो के लिए किसी भी हद तक जा सकती है
हमें अब यह सोचना होगा कि हम कैसे राजनीतिक दलों को पल्लवित कर रहे है  जिस वर्ग को फायदा होना है वे तो इस तरह के फैसले लेने वाली सरकारों राजनीतिक दलों के पक्ष में अपने वोट दे सकते है लेकिन उससे भी बडा तबका क्या इस तरह के नैतिक पतन की ओर धकलेने वाले दलों को बढावा दे सकते है हर नागरिक को यह सोचना होगा कि क्या ऐसे फैसले उचित है  यदि उन्हे ईमानदारी से लगता है कि ऐसे फैसले अनुचित है तो उन्हे इसका सबक सिखाना चाहिए ताकि भविष्य मे कोई भी सरकार ऐसे फैसले लेने से पहले यह सोचने पर विवश हो कि गलत फैसले का हश्र क्या होता है

पूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी की सजा सुप्रीम कोर्ट ने करीव  11 साल पहले सुनाई थी लेकिन हत्या मे शामिल लोगो को इसलिए फांसी नही दी जा सकी क्योंकि उन्होने राष्ट्पति के पास दया याचिका दायर कर रखी थी जिस पर राष्ट्पति महोदय ने 11 साल तक कोई निर्णय ही नहीं दिया जिसका फायदा उठाते हुए सजायाफ्ता केदियों के वकिलों ने  सुप्रीम कोर्ट मे याचिका दायर की जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने इतने लंबे समय तक भी फैसला होने के ग्राउण्ड पर उनकी फांसी की सजा को उम्र कैद मे बदलते हुए यह भी कहा कि यदि सरकार चाहे तो इन लोगो को रिहा कर सकती है क्योंकि इन्हे जेल में 22 साल हो गए है अर्थात् उम्र केद की सजा 20 साल मानते हुए निर्णय सरकार पर छोड दिया और  केन्द्र सरकार ने तो निर्णय लिया ही नहीं उससे पहले तमिलनाडु की सरकार ने तीन दिन में उन्हे रिहा करने पर विचार करना शुरू कर दिया जैसे सरकार को  इसी का इंतजार था  कब उसके हाथ मे फैसला आए और कब वह अपराधियों को भी रिहा करने से नहीं चूके बस उन्हे तो वोटो की राजनीति का लाभ मिलना चाहिए लेकिन सोचने वाली बात तो यह है कि आजकल उम्र कैद की सजा का मतलब जिन्दगी भर की कैद का होता है फांसी की सजा को उम्र कैद में जब बदला गया तो उस समय उम्र कैद का मतलब 20 साल नही है   इसके अलावा न्याय यह नहीं है कि ऐसे जघन्य अपराधियों को छोड दिया जावे। यदि समय पर दया याचिका को निपटा दिया जाता तो क्या ये आज जीवित होते तो उनके लिए तो जीवन दान ही सबसे बडा तोहफा है फिर रिहाई करके क्यों समाज को गलत दिशा देने का प्रयास किया जा रहा है और यह भी सोचना चाहिए कि उस परिवार पर क्या बीत रही होगी जिसने अपने सदस्य को खोया है राहुल गांधी प्रियंका गांधी और सोनिया गांधी के दिलों पर तमिलनाडु सरकार के इस फैसले से क्या बीत रही होगी बल्कि होना तो यह चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट  के इस फैसले पर पुर्नविर्चार के लिए सभी राजनीतिक दल एकमत से तैयार होते और कोर्ट से यह गुहार करते कि प्रशासनिक ढिलाई के कारण इतना उदार रवैया नहीं अपनाएं बल्कि उन्हे फांसी दिए जाने की अनुमति दी जावे तथा सरकार यह भी कोर्ट को आश्वस्त करती कि भविष्य मे किसी प्रकरण को इतना लंबित नही किया जाएंगा विपक्षी दलों का यह नैतिक कर्तव्य बनता है कि गांधी परिवार को इस मुद्दे पर कुछ बोलने की जरूरत ही नहीं पडनी चाहिए राहुल सोनिया और प्रियंका यह महसूस होना चाहिए कि मुद्दे पर सभी दल उनके साथ है वे अपने को अकेला महसूस नही करें देश ने एक प्रधानमंत्री को खोया है लेकिन हमारी राजनीति इतनी गर्त में चली गई है कि मानवीय मूल्यों नैतिक मूल्यों को इतना पतन हो चला है कि  वोटो की राजनीति के आगे ये सब बेमानी हो गए है आज सोनिया राहुल और प्रियंका ऐसे दोराहे पर खडे है कि वे अपने अत्यन्त निजी मसले पर  अपनी भावना तक व्यक्त करने की स्थिति में नहीं है पहले जो राजनीति होती थी उसमे ये कहने की जरूरत ही नहीं पडती थी  सधा विपक्ष ही निष्पक्षता के साथ स्वतः ही संज्ञान  ले लेता था और मानवीय नैतिक मूल्य बचे रहते थे लेकिन आज की राजनीति तो इसके मायने ही भूल गंई है राहुल गांधी ने  दबी जुबान से सिर्फ ये कहा है कि एक पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारों को इस तरह छोडा जाएगा तो आम आदमी के बारे में सोचना ही बेमानी है ये शब्द उनके दर्द को बयां करते है जो कोई भी राजनीतिक दल वोटो की राजनीतिक गिनती के सामने समझना ही नहीं चाहता   

1 टिप्पणी:

  1. नैतिकता और न्यायशीलता के सिद्धान्त को हमारे देश के लगभग सभी राजनीतिक दल भूला बैठे है ।

    जवाब देंहटाएं