गुरुवार, 1 सितंबर 2011


अस्थियों के दानी:- महर्षि दधीचि

भारतीय वाडग्मय में आज तक के इतिहास मे दानी तो कई तरह के हुए है लेकिन अपनी अस्थियों का दान करने वाले एकमात्र ऋषि महर्षि दधीचि को माना जाता है। प्रति वर्ष भादव सुदी अष्टमी को पूरे देश में उनके वंशज माने जाने वाले दाधीच उनकी जंयती धूमधाम से मनाते है। लोक देवता बाबा रामदेव जी के मेले से दो पूर्व महर्षि दधीचि की जयन्ती मनाई जाती है। कहा जाता है कि महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियो का दान कर देवताओ की रक्षा की थी। कहा जाता है कि भारतीय वाडग्मय मे देह दान की परम्परा महर्षि दधीचि के देह दान से ही प्रारम्भ हुई ।

       इस वर्ष भादव सुदी अष्टमी 5 सितम्बर 2011 को होने के कारण महर्षि दधीचि जयंती शिक्षक दिवस के दिन पूरे देश मे मनाई जाएगी। आईये ऐसे दानी पुरूष की कथा व उनके जीवन चरित्र के बारे मे थोडी जानकारी लेते है। कहा जाता है कि एक बार इन्द्रलोक पर वृत्रासुर नामक राक्षस ने देवलोक पर अधिकार कर लिया तथा इन्द्र सहित देवताओं को देवलोक से निकाल दिया। सभी देवता अपनी व्यथा लेकर ब्रहम्मा विष्णु व महेश के पास गएा लेकिन कोई भी उनकी समस्या का निदान न कर सका। लेकिन ब्रहम्मा जी ने देवताओं को एक उपाय बताया कि पृथ्वी लोक मे एक महर्षि दधीचि रहते है यदि वे अपनी अस्थियो का दान करे तो उनकी अस्थियो से बने शस्त्रो से वृत्रासुर मारा जा सकता है क्योकि वृत्रासुर को किसी भी अस्त्र शस्त्र से नही मारा जा सकता महर्षि दधीचि की अस्थियो मे ही वह ब्रहम्म तेज है जिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता है  इसके अलावा कोई उपाय नही है ।

       देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि के पास जाना नही चाहते थे क्योकि कहा जाता है कि इन्द्र ने एक बार दधीचि का अपमान किया था अपमान किया था जिसके कारण वे दधीचि के पास जाने से कतरा रहे थे। कहा जाता है कि ब्रहम्म विद्या का ज्ञान पूरे विश्व मे केवल दधीचि को ही था। वे पात्र व्यक्ति को ही इसका ज्ञान देना चाहते थे लेकिन इन्द्र ब्रहम्म विद्या प्राप्त करना चाहते थे दधीचि की दृष्टि मे इन्द्र इस विद्या के पात्र नही थे इसलिए उन्होने पूर्व मे इन्द्र को इस विद्या को देने से मना कर दिया था। इन्द्र ने उन्हे किसी अन्य को भी यह विद्या न देने को कहा तथा कहा कि यदि आपने ऐसा किया तो मै आपका सिर धड से अलग कर दूंगा। महर्षि ने कहा कि यदि कोई पात्र मिला तो मै उसे अवश्य यह विद्या दूंगा। कुछ समय बाद इन्द्र लोक से ही अश्विनी कुमार महर्षि दधीचि के पास यह विद्या लेने पहुंचे महर्षि को वे इसके पात्र लगे उन्होने अश्विनी कुमारो को इन्द्र द्वारा कही गई बाते बताई तब अश्विनी कुमारो ने महर्षि दधीचि के अश्व का सिर लगाकर यह विद्या प्राप्त कर ली इन्द्र को जब यह जानकारी मिली तो वह पृथ्वी लोक मे आया और अपनी घोषणा अनुसार महर्षि दधीचि का सिर धड से अलग कर दिया। अश्विनी कुमारो ने महर्षि के असली सिर को वापस लगा दिया। इस कारण इन्द्र ने अश्विनी कुमारो को इन्द्र लोक से निकाल दिया । यही कारण था कि अब वे किस मुंह से महर्षि दधीचि के पास उनकी अस्थियों का दान लेने जाते।

       लेकिन उधर देवलोक पर वृत्रासुर राक्षस के अत्याचार बढते ही जा रहे थे वह देवताओ को भांति भांति से परेशान कर रहा था। अन्ततः इन्द्र को इन्द्र लोक की रक्षा व देवताओ की भलाई के लिए और अपने सिंहासन को बचाने के लिए देवताओ सहित महर्षि दधीचि की शरण मे जाना ही पडा। महर्षि दधीचि ने इन्द्र को पूरा सम्मान दिया तथा आने आश्रम आने का कारण पूछा देवताओ सहित इन्द्र ने महर्षि को अपनी व्यथा सुनाई तो दधीचि ने कहा कि मै देवलोक की रक्षा के लिए क्या कर सकता हू  देवताओ ने उन्हे ब्रहमा विष्णु व महेश की कही बाते बताई तथा उनकी अस्थियो का दान मांगा। महर्षि दधीचि ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी अस्थियो का दान देना स्वीकार कर लिया उन्होने समाधी लगाई और अपनी देह त्याग दी। उस समय उनकी पत्नी आश्रम मे नही थी  अब समस्या ये आई कि महर्षि दधीचि के शरीर के मांस को कौन उतारे सभी देवता सहम गए। तब इन्द्र ने कामधेनु गाय को बुलाया और उसे महर्षि के शरीर से मांस उतारने हेतु कहा। कामधेनु गाय ने अपनी जीभ से चाटकर महर्षि के शरीर का मांस उतार दिया। जब केवल अस्थियों का पिंजर रह गया तो इन्द्र ने दधीचि की अस्थियों का वज्र बनाया तथा उससे वृत्रासुर राक्षस का वध कर पुनः इन्द्र लोक पर अपना राज्य स्थापित किया।

       महर्षि दधीचि ने तो अपनी देह देवताओ की भलाई के लिए त्याग दी लेकिन जब उनकी पत्नी वापस आश्रम मे आई तो अपने पति की देह को देखकर विलाप करने लगी तथा सती होने की जिद करने लगी कहा जाता है कि देवताओ ने उन्हे बहुत मना किया क्योकि वह गर्भवती थी देवताओ ने उन्हे अपने वंश के लिए सती न होने की सलाह दी लेकिन वे नही मानी तो सभी ने उन्हे अपने गर्भ को देवताओ को सौपने का निवेदन किया  इस पर वे राजी हो गई और अपना गर्भ देवताओ को सौपकर स्वयं सती हो गई । देवताओ ने दधीचि के वंश को बचाने के लिए उसे पीपल को उसका लालन पालन करने का दायित्व सौपा। कुछ समय बाद वह गर्भ पलकर शिशु हुआ तो पीपल द्वारा पालन पोषण करने के कारण उसका नाम पिप्पलाद रखा गया। इसी कारण दधीचि के वंशज दाधीच कहलाते है।

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